पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३३५

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ढ़ माध्यमिअरवा स्क याज्ञिक के पास इनके कई सौ छंद नौजूद हैं। इनका कविता- छाल संवत् १६३१ से प्रारंभ होतः है। इनकें नृत्यु पर अकदई ताह में बह रहा हो- दाद ल स ईद क न दीन्हा दुसह दु । हो अब हम हैं दीन ऋछ नहिँ राख्यौ दरवळ ! नाम-{७८) व्य ङ, ओड़छा, बुंदेलखंछ । मंथ-६ , २ र ३ ए, ३ ब्रह्मज्ञान, ४ मंगलवार पद, ६ इ ३०० ४ छोटे ), ६ मार्च | पृषखी ।। छबिलायर्ड--६६११। । विदर-इन ग्रंथ में दइ ३, ४ व ५ मनै छुन्नड़ में देखे । इनकी कृतर धरण अंश झी छी ।। जैसे गुरु तैसे राख ।। हरि त बहीं मिले हैं जहाँ श्रीगुरु हो कृपाल ! गुरु ले पाल ठहैं बृद्धा आते हैं काल । श्क रितः अिन शनिक-सुत ॐ कान के प्रतिपाद्ध.} , ( ७६} द्विद्ध विपुल ॐ शनी हमने छत्रपूर में देखी हैं वह प्रति सं १६७४ की लिखी हुई हैं । झाँच से इनङ कविता का संवत् । १६६५ जान पड़ा। इनके ४० पद था में हैं। विला इमझी साधः- ६ अंशी है। ये मुहाशय अपने भांजे ऋष्मी हुरिदास के शिष्य ३ औंर राजी अधुन के यहाँ रहते थे ! इद जन्म संवत् १५८० स्त्र में लिखा है। ऋहने हैं कि ये अपने गुरु के क्षेत्रं अभी थे किं उनके मरने पर तुरंत इन्होनें अपनी अाँ में पट्टी झाँध छ । उदाह- - सजनी नव कुंव इन फूखे ! अलि-कुत संकुद्ध करत कुद्धाहले सौरम मनमथ मृदें ।