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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रले चु-क्लिों दौरी भइयो किरिपति यनपचि ह्यः गौरो, | मौरी पछि गच्चों पूंछ पके ई की। नाम--{ ८१ } तानसेल म्वालियर । ग्रंथ---संगीतसार (१६६७), उपमाला (१६ १७), श्रीगणेश स्तोत्र । कविताकाल----१६६७ । । विवर--थे महाशय प्रथम ग्वालियर के ब्राह्म और स्वामी हरि- दास के शिट्य थै, पर पीछे मुलखमान हो गए ! ये अद्वितीय भानेवाले थे और वित्ता भी अच्छी करते थे । . उदाहरणा- क्रि सृर को सर ज्ञन्य किंधौं सूर की पीर । %ि सुर को पद वाग्यो तुन मन भुजत सुरीर । यह दोहा सूरदास के प्रशंसा में सनसेन ने कहा था । इस पर सूरदास ने इनकी प्रशंसा यः -- बिना यह जिय शनिकै सेसहि. दिए न कोन : थरा अरु सब डोलते हादसे की तुम् । तानसेन को नाम त्रिलोचन भित्र था । इनके पितामह इनके साथ म्यज्ञियर-नरेश महाराजा मनिरंजन के यहाँ जाते थे और इन्हीं महाराजा ने त्रिचनज ॐ तानसेन की उपाधि दी । सभी ये तानसेन कहलाने लगे ! दान-शास्त्र में पहले बैज-वरे इनके गुरु थे । पीछे से तानसेन शेल्ल महम्मद शीप ग्वालि वाले के शिष्य हुए। कहते हैं कि शैलजा ने तुइनन की जिवा में अपनी शिङ्कर लगा दी । उस दिन से तानसेल मूसलमान हो गए और अच्छे | राषक भी हुए । जिल्ला लगने से अच्छे गायक होने का अर्थ अशुद्ध समझनी चाहिए । अह भैं। झते हैं कि शाही घराने की क्रिस कन्या से विवाह करने में तानसेन मुसलमान हुए। यह आत अधिक नाशिक ज्ञान एडुर्छः ३१ . . . . . . . ।