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मिश्रबंधु-विनोंद

शिबंधु विनोंद इस पद पर अहाँगीर शाह के समय तक रहें। कहा जाता है । कि इन्होने अपनी झिंदगीभर भी किसी पर क्रोध नहीं किया । ‘डमर-भर इन्होंने यमर ही के काम झिए । एक बार अकबर और सहाराजा प्रतापसिंह की सेना से घोर युद्ध हो रहा था । उस समय इनको छः ॐ देनजी के सैनिकों ने किसी प्रकार के कर लिया। जब वह हाङ्ग रानाजी को विदित हुअ त उन्होंने बड़े अस्मान्-पूर्वक उचों स्वानख़ान के पास भेज दिया । कुछ समय के उपरांत नक्की का राज्य अकबर ने छीन स्त्रिया र २४ वर्ष तक आता पहाड र जंगलों में धमते फिरे । अंत में किसी प्रक्रार इन्होने अकबर ॐई सेना के जानकर अपना देश फिर छान लिया। जब अयर के अरू समाचार छा तो उसने एक बृद्द संज्ञा देने के फिर विचार किया १ दि यह चढ़ाई होती तो. प्रतापसिंइ . की शहखें की अति राज्य त्याकर फिर भी पड़ता । इस अच र पर एल्लानेत्राला ने पुनः एहसान मानुर अर को समझा । शुक्र हार की निंदा : सहकर भी ना ना भने एर रोजी किया। इन्होंने थावजीवन पत्रों बढ़े -बड़े दान दिए । ३ • महाशय कवि और गुशियों के कल्पतरु थे । कहीं आता है कि गंग कवि को एक ही छंद के इनाने दुर ३६ लाख रुपए का इन्होने दाद दिया था । इनको श्रीकृष्ण भगवान् को इष्ट श्री १ एक समय कारख-वश ये जहाँगीर बादशाह के द्रोही होंकर वैदी हो गए और छुटने के पीछे भी कुछ कञ्च तङ्क अपमानित रहें । ऐसी अवस्था में भी अर्थी लव इनको धेरते थे और अफ्ते में दान-शक्लि न होने के छोरख इन्कने क्लेश होता था, यह है कि इन्होंने सोचा कि इस अकड दान देने के अयोग्य रहकर जीना कृथा है। निम्न लिखित में इस बात के स्वरूप हैं। ... बैरम नर इन्य हैं पर उपक्रटरी अं; ; . .. ।