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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोंद रहिम गति दीप की कुल कपूत झी सोय ।। बारे उजियारो झरे बढ़े अँधे होय । । गुन में लेत रहीम. हि सलिल कूप ते काढ़ि ; । काहू के मन हेयरों को छूते हैं बा । करवा थिर न ही कहि युह भत्त' सब कोय । पुरुष-पुरातन की बधु क्यः न चंचल होय ! इन्होंने उपमाएँ, दृष्टांत, उत्प्रेक्षा आदि भी बहुत बढ्या खो- लौकर हो हैं--- नैन सोने, अधर संधु कहि रहीम घांटे कौन ; मी भावै लोन पर भी हू पर क्लीन । बड़े पैट के मरने के हैं रद्दभ दुख बाढ़ि । यादै ऋथ हहरि कै रह्यो दाँत है काढ़ि। हरि रहीम ऐसी री ज्यों कमान सुरपूर लैचि अपनी और की डारि दियो पुन दूर । ' इस महानुभाव ॐ काब्य की सभी लोगों ने मुझे कंठ से प्रशंस? ¥ । है और वास्तव में वह सब प्रकार से प्रशंसनीय है। इन्होंने शुद्ध मुभाग में कविता की है और फ़ारसी स्वं संस्कृत के पूर्ण विद्वान् होने पर भी ग्रस्य-भाषा तक्र ा उत्तम श्योग करने में ये कृतकार्य हुए हैं। इन्होंने शब्दों के बाह्याडर का तिरस्कार करके चैवत भाव कले प्रधान रक्खा है और फिर भी इनकी कविता व भाषा दोनों मनमोहिनी हैं। इनकी स्ना बिलकुले सञ्च हैं और उसमें हर स्थान पर इनकी आर्मीयतः झलकती है। उत्तम छंदों के उदाइरस में इनका इस ग्रंथ ही रक्खा को सता है । इम इन सेनापति की अंडी में हैं हैं . . .... ..

( १४८ लालचंद

संकट १६३३ ॐ ऋचंद ३ इत्तिहाभा-लामक एक अंध