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मिश्रबंधु-विनोंद

३१६ मिश्रबंधु-विनोद .. गनै प्रियहि सरबस्व जो सौई प्रेम अमान् । .: अरै सदा चादै न कछु सदै सबै को होय । | रहै एकरस चाहिकै, प्रेम बसानी सोय । । देखि गदर, हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान् । छिनहिं अदसा-बंस की उसके छोड़ि रस्सखान । । प्रेम-निकेतन श्रीबनहि अयि गोबरधन घाम ; . . . सह्यौ सरन चित चाहिकै जुगल सरूप लक्षाम।। सुजानरसखान में १२६ छंद हैं, जिनमें से प्रायः १० दौ-सौर- आदि, और शेष सदैया एवं घनाक्षरी हैं। इन्होंने प्रेम का बड़ा मन- हर चित्र खींचा है, जिससे इनकी पूको भङ्गि भी प्रकट होती है। इनको भक़ि उसी प्रकार की थी जैसी कि सूरदासजी की । इसलिये अतुल भक्ति रखते हुए भी इन्होंने श्रीकृष्ण-संबंधी भंगा-रस को - भी ख़ब ह्रिखा हैं । इनकी कविता में उत्तम छंद व्रहुत-से हैं.और वह हर स्थान पर कृष्णानंद से भरी हैं। छंदों में अपना नाम लिखने में ये सहाशय कभी-कभी दो अक्षर अधिक लिख जाते । इन्होनें शुद्ध ब्रजभाषा नै कविता की और अपने शब्दों में मिलत • वश बहुत कम आने दिए । अनुप्रास की इन्होंने बहुतायत से प्रयोग नहीं किया । कहीं-कहीं केवल स्वरूप रीति से कर दिया। पूरे भक्क होने पर भी ये श्रुंगार-रस की भी उत्कृष्ट कविता कर सकते थे । कविजन इनकी कविता को बहुत पसंद करते हैं और हम भी उनकी इस अनुमति से सहमत हैं। हम इनकी मवाना दासी क्की श्रेणी में करते हैं। इदाहरण--- मानुस ह त वही रसस्वाचि बल ब्रज कुल गाँव के ग्वारन । ॐ पसु हौं तो कहा बसु में घरों नित नैद कि धेनु * रन । .. हद हैं तो वहीं गिरि को ये भयो -छत्र पुरंदर कारन ।