पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३८५

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प्रौढ़ माध्यमिक्-प्रङ इस, वल्लभाचार्य, कबीरदास, हितहरिवंश आदि सभी प्रसिद्ध शुदं अरसिद्ध भक्तों के नाम आ गए हैं। केंद कैवल्ल इतना है कि सनु-संवत् का कुछ हि ब्योरा नहीं दिया हुआ है। फिर भी सङ्ग- भाल की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है । इसी कविता भी महर हैं। नाभादासर्ज़ ने प्रायः एक-एक छप्पय द्वारा क्रत्येक भकू का वर्णन किया है, परंतु कहीं-कहीं एक ही छप्पय में कई मनुष्य का एवं कई छंदों में एक ही के का हाल भी कहा है । प्रियादासजी ने प्रायः सभी स्थानों पर विस्तार-पृर्वक बर्फच किए हैं। और जो जितना बड़ा भक्क है उसका उतना ही अधिक बर्णन है। इस दौन महात्माओं के महत्त्व की प्रशंसा कोई कहाँ तक कर सकता है। इन महाशयों में जाति-पाँति का बंधन बहुत कुछ ढीला कर दिया था और किसी के वैष्णव हो जाने पर ये उसके महत्व की बेंच जाति से न करके भक्ति की मात्रा से करते थे। इन्होंने जाति- घाँति पूछ ना कोय; हरे का भजे सो रे का हो । के यथार्थ कर दिखाया और अपने निर्मल चरित्रों से संसार को पवित्र किया । कविता के अनुसार हम इन्हें पद्माकर अवि की भैंसी में रक् । छौज में प्रिथादासजी-कृत भारत भाषा भी लिखी है ॐ देख- खुद्दी भाषा में बनी हैं । उदाहरण लीजिए- |.. . नादाखे । श्रीभट्ट सुभट प्ररांट्यो अधट रस रसिकन मन मोद घन है . मधुर भादः सम्मिलित ललित लीला लुबलित छबि . निरखत हरषत हृदय प्रेम बरफ्त सुकलित आदि । भथ निस्तारन हेत देत दृढ़ भके सबन्ध निद । । जासु सुज्डस-सस उदै हरत अति तम अम श्रमत्रित है आनंद कंद श्रीनद सुत श्री बृषभान्नुसुता भजन ।। श्रीभट्ट सुभट प्रगळ्या अधेट इस रसकन मन मोद घन ।