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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद चंगुल के और जैसे होह महि है भूमि,. .. यों ही पार्यं गाड़े पै न छोड़े ट्रैक करी । मह की मरोर से भरम को न और पार्दै, . धावै चहुँ र ज्यों बढ़ावै जाळ मुक्रर ।। ऐसी दुरद्धि भूलि झूठ के झरोखे का द्धि, फूली फिरे ममता पूँजीरन सों अकरी । निरनय करने परम फ्रधान; भदसमुद्र : जलतान यान । शिव मंदिर अघ्र हरण अनिंद्र ; बंद पास चरन : अरबिंद । कमठ मान भंजन बर बीर । गरिमा सागर गुन गंभीर । मुर गुरु पार लहै नई आस मैं अज्ञान जंपू जस सि । | ( १८७ } उसमान। ये महाशय शेख हसन गाज़ीपूर-निवासी के पुत्र जहाँगीर शाह के | समय में हुए थे। इन्होंने संवत् १६७० में चित्रावढी-नामक एक प्रेमकहानी दोहा-चौपाइयों में जायसी की रचना के ढंग पर बनाई। इनो रचना सङ्क्त और मनोहर है । हम इनको साधारमा श्रेखों में रखतें हैं। यदि इनकम समय ग्रंथ हमारे देखने में आता, तो इनकी कदिता के विषय में हम अधिक निश्चय के साथ अनुमति है। सकतें । । उदाहरण-- आदि बखान सोइ चितेरा ; यह जग चित्र कीन्ह जेहि फेरा । न्हेंसि चित्र पुरुष अउ नारी । को जल पर अस सकइ सँवारी । कीन्हैसि अति सुर-ससि-तारा ; ॐ अखि जोति सिसई कों पारा । कीन्हेसि बयन बेद बेहि सीखा ; के अस चित्र पबन पर लीला । अइस चित्र लिखि जान खोई : बोहि बिनु मैट सकइ नही है । कीन्हेछ इँका स्थान अङ, सेता ; राहा पीत अडर अन्य जेदा ? यह सब बरतु दोन्ह इईं ताई । आपु अर्न अरूप गोसाई ।