पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/४०७

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प्रौढ़ माध्यमिक-अकर सुंदर सांख्य { १६७७ }, सर्वेया, तर्क-चिंतामखि, विवेकचितामाथि (१६१०), पंच इंद्री निख्य ग्रंथ १६६६१, बादी, ज्ञानसमुद्र {१७०), ज्ञानदिलास, सुंदर-विलास, सुंदर काव्य, { अ० नै रि० 3 सयर, सु दुराष्टक, कुछ १३ अष्टके, स्व ह योग, सुलसमाधि, स्वप्नोंध, वैष्ट विचार, उअनूप, सुंदर बादी, सहानंद, गृह बैर-धि, त्रिविध-अंतःकरण भेद और पद अ० तथा द्वि० त्रै० खोज ॐ रुक्मांगद की एकादशी कथा, ज्ञानसागर, विवेकचेतावनी, सुंदरीत और विचारमाहा भो लिखे हैं । १७०७ } } इनके छंद यत्र-तत्र देखने में बहुत अएि हैं, जिनसे न पड़ता हैं कि भारी अङ्ग होने के अतिरिकू ये महाशय उत्कृष्ट कवि भी थे और साथ पम् इनम: प्रगाढ़ अधिकार था । हम इन्हें तो की श्रेणी में रखेंगे। इनकी समुद्र हेमने छत्रपूर में देखा है। उसमें गुरु-शिष-संवादू हैं। उदाहरण- मौज क सुरु देव दयार शब्द सुनाय के हरि रौं । ' ज्य रबि ॐ प्रगटे निसि आत सुदूर किय भ्रम मानि अँधे । काइक बाचक मानस हू कारें है गुरु देव ही मंगढ़ मैरी ।। सुंदरदास के येरि जु दादूदयाल ॐ ॐ नितु चै । सेवक सैव्य सिजे रस पीत भिच्च नहीं अरु भिश्च सदाहीं । ज्य अल बीच यो अलपिँड सु पिंडहु नी जुदै छु नहीं । य इस में पुरी इ एक ही छु भिङ इ भिन्न देखाही ; सुंदर सैकृ भाई दी यह भक्ति फरा परमेश्कर माहीं ।। कै फैट कूल्हों के ऋठी वैध र अर्शी, कोई अछु क्रिया सोई अति है। के वैट कुप कै छाफी के सर , कै पेट भूत कै त हो चुका है।