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मिश्रबंधु-विनोंद

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मिश्रबंधु-विनोद से मंथ में अनावश्यक विस्तार होता और भद्दापन आता । फिर अधिकतर स्थानों पर सभी की राय मिलाकर लेख लिखे गए हैं। तीनों लैखों के कार्यों के अलग-अलग दिखाना हमें अभीष्ट भी न था । इस ग्रंथ में जहाँ एक संवत् के नीचे कई नाम आए हैं या अज्ञात अथवा वर्तमान समय में विना संवत् लिखे ही नाम लिखें गए हैं, वहाँ से अकारादि क्रम से लिखे हैं। इस क्रम में नाम के आदि में आनेवाले 'ध' और 'ब' एक ही माने गए हैं और कहीं। कहीं 'श' और 'स' का भी यही हाल है। काल-क्रम कचियों के पूर्वापर क्रम रखने में हमने जन्म-संवत् का विचार न करके काब्यारंभ काल के अनुसार क्रम रक्खा है । साहित्य-सेवा की दृष्टि से किसी का जन्म उसी समय से माना जा सकता है. अब से कि वह रचना का आरंभ करे । इसी कारण कई छोटी अवस्थाबाले लेखर्को के नाम बड़ी अवस्थावालों के पूर्व आ गए हैं। ऐसे लोगों ने छोटी ही अवस्थाओं से साहित्य-रचना की ओर ध्यान दिया । कालनायक के कथनों में इस नियम से प्रतिकूलता है। कालनायक केवल काव्योत्कर्ष के विचार से नहीं रखे गए हैं, वरन् इसके साथ उनके चणित विक्य, उनका तात्कालिक प्रभाव और उनके समयों के विचार भी मिल गए हैं । सुदन-का-संवत् १८११ से १८३० तक चलता है। इसके नायक बधा भी हो सकते थे, परंतु उनका कविता-काल १८३० से प्रारंभ होता है, सों सबसे पीछे होने के कारण वह समयनायक नहीं बनाए गए । फिर भी उनका वर्णन इसी समय हुआ । हमने कक्यिों के किसी समय में रखने के विचार मैं उनम काव्यारं काल ही जौड़ा हैं । कई स्थानों पर ऐसा हुआ है कि कवियों ने जिस संवत् में उनका बर्णन हुआ है, उस बहुत पीछे तक रचना की है। जैसे सुंदर-दादूपंथी कथन संवत् १६७८ में हुआ है,