________________
सुमति ऊहत रति सोय” क्रिया को देख नाय ॐ चित्त में दर्शलभव अानंद से बढ़कर क्रीड़ा-संबंधी भाव उत्पन्न हुआ। इस अब में इतनी वृद्धि पाई कि उसने हँसकर पत्नी या गत छुअर, सौ यछ । भाव ॐवळ आकर चला नहीं गया, वरन् ठहरा ! यह था रति का भाव, सौ में स्थायी रति का भाव प्राप्त हुश्रा । यही शृंगार-से कम मूल है ! इस के लिये लिंबन की आदश्यकता है। यहाँ पति और ही रस के आलंबन हैं। रस गाने के लिये उद्दीपन का कथन हों सकता है, परंतु वह अनिवार्य नहीं है। इस छंद में कवि नै उहप नहीं कहा है। नायक अ हँसकर गाना छूना और मुसकराना संयोगऋगार के अनुभव हैं, तथा नायिका का रिसानी मानचेष्टा होने से वियोग-भंगार का अनुभव है । सिसिक-सिलकि निशि खन्ना तथा रोकर प्रात पाना संशा नहीं हैं, क्योंकि में समुद्र-तरंग की भाँति नहीं उठे हैं, इन बहुत देर स्थिर रहे हैं। हाय-हाय करके पछताना और कुछ भी अच्छा न इगनों भी ऐसे ही भाव हैं। इनके एक प्रकार से अनुसार मान सकते हैं। अाँसु का दखना तनसैचारी है। अतः यहाँ टंगार-रस के चारों और पूर्ण हुए, सों प्रकाश श्रृंगार-रसपूर्ण है। पहले संयर था, परंतु पीड़े में विदेरी हो गया, जिसकी प्रबलता रहने से छंद में संयोगतर्गत वियोग-शृंगार है । बहिरंग सखी के सम्मुख नायक ने कुछ हँसकर मात छुआ, जिससे हास्यरस की प्रादुर्भाव छंद में होता है, परंतु दृता-पूर्वक नहीं। शहर का हास्य मित्र हैं, से उसका कुछ ना अच्छा है । थोड़ी हँसकर गात चुनें और मुसकराकर उठ ज्ञाने से मृदु हास्य आया है, जिसका स्क्रूप उत्तम है, मध्यम अथवी अधम नहीं ! ऋगर मैं क्रोध को वर्णन अप्रयुक नहीं है । यहाँ सुधा कहांतरिता नायिका है । पत्रिभेद में यह वाचक्र पत्र है, झिसक्री शुद्धस्वभावा स्वकीया अधिार है। सखी का वर्णन स्दया के हाथ होता है और दूती की पक्कीया के