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मिश्रबंधु-विनोंद

३४ मिश्रबंधु-वनद साथ। कुछ ही रात के छूने से क्रोध करना भी स्वकीयत्व प्रकट करता है और रात-भर रोना-धोना स्थिर रहने से उसी की अंगपुष्टि होती है । वाचक पत्रि होने से छंद में अभिधी का प्राधान्य है, जिसका भाव लक्षण के रहते हुए भी संबद्ध है। यहाँ अर्थातरसंक्रमित वाच्य- ध्वनि निकलती है, क्योंकि कहांतर्गत पश्चात्ताप की विशेषता है, जिससे चित्त का यह भाव अझट होता है कि क्रोध का न होना ही चिकर था । नायिका मुग्धात्वपूर्ण स्वभाव से क्रोध करने पर विवश हुई। उसकी इच्छा नायक के मनाने की है, परंतु लज्जा के कारणं वह ऐसा कर नहीं सती । वाचक के जाति, चंदृच्छा, गुण तथा क्रिया- नामक चार मूल होते हैं। यहाँ उसका जाति मृत्व है। नायिका स्वभाव से ही रात के छुए जाने से क्रोधित हो गई। इस छंद मैं गौण रूप से समता, प्रसाद एवं पुकुसरिता गुण आए हैं, परंतु उनमें अर्थ- अक्ल का प्राधान्य है। छंद में कैशिकी वृत्ति और नागर नायिका है, क्योंकि उसने जरा-सा गत छुए जाने से सखी के संकोचश लजा- जनित क्वॉध किया और दायॐ के उठ जाने से थोड़े-से अन्नरस पर ऐसा ज्ञक किया कि रात-भर रोदन, हाय-हाय, पछुताना, आँसुओं का बाहुल्य अादि जारी रखा । एतावता छंद-भर में नागरत्व की प्राधान्य है, सों ग्रामीणतासूचक रस में अनरसे होते हुए भी नायिका नारार है। | छंद में दो स्थानों पर उपसाबंकर आया है, जिसका चमत्कार अन्यत्र नहीं देख पड़ता * । इससे यहाँ एकदेशोपमो समझनी चाहिए । यहाँ विषादन और उल्लास को आभास है, परंतु बह दृढ़ नहीं होते। ‘क जानै री बीर बिन बिरही विरह-व्यथा' में लोकोक्रि- • अलंकार है और कुछ गात छुए जाने से रिसाने के कारण स्वभावोक्कि ... * शब्द-रसायन में देवजी के इसे एकदेोपसा के उदाहरण में रक्ई भी है।