पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३८
मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबधु-विनोंद समय है। राम-चरण का चलना, भूमि द्वारा राम-पद का स्पर्श होना, तथा अपना भूरि भार माना जाना संचार हैं। 'केहि सुकृत केहि घरी बसाए ? धन्य पुन्यमय परम सुइ' और 'त-समान अमरावति नाहीं अनुभाव हैं। चलने में उग्रतः संचारी है, जो ऋ गार-रस में वर्जित है, किंतु इतर रसों में नहीं । अतः अद्भुत रस पूर्ण है। यह रस यहाँ प्रच्छन्न है। | सब बातों के ऊपर यहाँ रामचंद्र का महत्व और कवि की उनमें प्रगाढ़ भक्ति मुख्य हैं, सो तात्पर्यायावृत्ति सर्वप्रधान है। कुल बातों पर ध्यान देने से प्रकट है कि यह उत्तम काव्य है ? | बिहारी-कृतं छंद । 'अरी खरी सटपट परी बिध प्राधे मग हेरि । संरा लगे मधुपन लई भागन गली अँधेरि । . यह दोहा छंद है, जिसमें २४ मात्राएँ होती हैं और प्रथम यति वैरहवीं मान्न्ना पर रहती हैं। यहाँ परीया कृष्णाभिसारिका नाथिका है । बह काले वस्त्रालंकारों से विभूषित निश्चित स्थान कों परपति से मिलने जाती थी कि अर्द्धमय में चंद्रोदय हो गया, जिससे वह घबढ़ाई। अरी खरो सटपट परी एवं सरपट में वृत्यानुप्रास है । यही दो अंतिम पद परकीयाव-प्रदर्शक हैं । भौंरों के छाए हुए होने से भाग्यवश गल्ली अँधियारी हो गई, जिससे अनि हेतु मिलेकर कार्य सुगम हुआ, सो समाधि अलंकार आया । भौरी के साथ होने से प्रकट हुआ कि नायिका पद्मिनी है, उसके तन में कमल की सुगंध अती है। छंद में प्रथम प्रहर्पण भी है। पहले नायिका अँधियारे में चली थी, पर बीच में उजियाला हुआ, किंतु भ्रमरों से अंधकार फिर हो गया, सो पूर्वरूप अजंकार निकला । चंद्रोदय के प्रतिबंधक होने पर भी कार्य सिद्ध हुआ, सौ तृतीय विभावना है और चाँद्ध दोष द्वारा दोष न लगने से अबझालंकार आयो । चंद्रज्योति कम