पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/७९

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भूमिका पुनि राजा । छल-बल कीन्ह उइइ निज काज ।” में भी यही उपर्युक्ल भाव है। कपटी का कहना कि अब मेरा नाम भिखा है, प्रकट करता है कि वह अपना पूर्वक्राजिक गौरव व्यंजित करता था, परंतु राजा ने स्वभावतः उस गैरव पर विचार न के उसॐ वर्नान् ऋषि- पन पर विशेष ध्यान दिया, जिससे उसमें भी यह नम्र कि राजा श्राप भव से ही सहवा में ठगा जा सकता है, अपने दिम महत्व की वैत को विवाह उड़ दिया और अपने में एकंदन कहकर अपनी उत्पत्ति अादि सृष्टि के साथ ब्रतलाई, तथा आगे चलकर यहाँ तक कहा कि “जु ढगे अरु अब तें भय ; झाडू के ट्रह-प्रम द रायॐ ।” यदि रजा चतुर होता, तो इन कथनों का अंतर समझकर उसकी धूर्तता को तोड़ जात : क्रेकि यदि वह कभी किसी के गृह-ग्राम में नया ही नहीं, तो “अय भिखारी, निर्धन-रहिद निकेत” कैसे हो गया ? फिर भिलाई के लिये औरों के यहाँ आना आवश्यक है । गोस्वामीजी ने ऊन-बूझकर यै फेर डाल दिए हैं कि जिनसे राजा की मूर्खता प्रकट हों । उन्होंने कह दिया कि “तुलसी देखि सुबेषु भूतहि मृढ़ न चतुर नर उन्होंने यह भी व्यजित किया कि चतुर पुख्य विचार करके धोखेब्रा की बातों को पूर्वापर-विरोध जान सकता है । इङ र झपटी मुनि यह भी कहा जाता था कि उसने अब तक अपना हाथ किसी को भी नहीं बतलाया और दूसरी और थोड़ी-सी मुलाक़ाह से राजा को सब हाल बतलाता जाता था । इसके उसने । फार दिए । एक तो यह कि उसे कभी कोई मनुष्य सिङ्गा ही नहीं और दूसरे राजा शुचि, सुमति श्रर उसका प्रीतिभाजन था, सो वह अपने शुद्ध चरित्र-कथन पर बाधित था । यदि वह किसी को भी नहीं मिला था, तो उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि की कहानी उसने