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मिश्रबंधु-विनोंद

४४ मिश्रबंधु-विनोद कैसे आनी ? यदि थोरा-बल से जानी हों, तो भी किसी को कभी, भैर किसी मनुष्य का न मिनी बिलकुल अनर्गलवाद है ! फिर भी राजा ने मूर्खतावश इन बातों पर विश्वास कर लिया। इसी प्रकार थोड़े ही से कथोपकथन एवं मुनिवेष से कपटी पर पहले ही से राजा ने पूरा अनुराग दिखलाया, जो विना पूर्ण परिचय के अप्र- युक्न थी । इतनो शीघ्रता से उसे राजा को शुचि, सुमति जानना तथा प्रीतिभाजन मानना भी संदेह से ख़ाली न था । किसी को एकाएकी अादि सष्टि के समय उत्पन्न मान लेना मूर्खता की परा- काष्ठा है, परंतु राजा ने थोड़ी-सी त-महिमा सुनकर उसे भी मान लिया । उसे समझना चाहिए था कि उसका पहचानना किसी के लिये कठिन न था ; क्योंकि उसके राजा होने से लाखों मनुष्य उसे जानते थे । फिर भी उसने कपटी मुभि की परीक्षा भी लेने में । अपनी नाम-सान्न पुछा अलं समझी । कपटी ने नाम भी एका एकी न बतलाकर पूरे निश्चय के साथ भूमिका बाँधकर पिता के नाम-सहित राज का नाम कहा । फिर भी उसे समझ पड़ा कि राजा शायद कुछ और पूछ बैठे और पोल खुलं जाय, अतः उसने उसे सोचने और प्रश्न करने का अवसर ही न देकर तुरंत वरदान माँगने का लालच दे दिया और उसने मूर्खतावश मान भी लिया। | बरदान देने के पीछे से प्रभाव प्रदर्शन के उपाय छोड़कर कपटीं ने कार्य-साधन की ओर ध्यान दिया और वरदान में एक व्रटि लगा दी, जिसे दूर करने के लिये भविष्य में प्रयत्न करना पड़े, और इस प्रकार प्रयोजन बनें । उसे यह भी संदेह था कि यदि यह किसी से ये बातें कह देगा, तो वह इसे इसकी प्रचंड मूर्खता पर सचेत कर देगा । इसीलिये मरण का द्वितीय कारण कथा का प्रझट करना इस टूर्तराज ने बता दिया है। इसके पीछे ब्राह्मण के चश करने के विषय में स्वयं कुछ न कहकर इसने राजा की है।