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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोंद कपदी ने स्वयं राजा के परोसने का इसीलिये प्रबंध बाँधा था कि उसी पर पूरा दोष समझ पड़े । उसने समझा था कि साल-भर में कमी-न-कभी विप्र-मांस का हाल खुले ही जायगा । उसके भाग्य- वश ऐसा पहले ही दिन हो गया । राजा ने शूकर की पीछा करने में बैर्य दिखलाया था, परंतु आकाशवाणी सुनकर बुद्धिशन्यता के शाप से प्रथम घबड़ाकर वह कुछ भी न कह सका । वह शूरती ॐ कर्मों में धैर्यवान् था, परं तु बुद्धि में बालकों के समान अजान था । शोद्धार के विषय में भी उसने ब्राह्मणों से कुछ बिनत न की और उन्होंने भी अकूट में तो उसे निर्दोष छह दिया, किंतु उसकी वास्तचिक कुटिलता पर विचारकर शाप-दीक्ष्णता को कुछ भी न बुलाया। | कालतु एवं झपट राजा ने एक वर्ष भी न ठहरकर अपने सुहा- यक सहित राजनरार घेरकर भानुप्रताप का सर्वनाश कर डाला । कवि ने इस वर्णन के पीछे विय तथा भावी माहात्म्य-विषयक निम्न छंद कथा के सार-स्वरूप कहे- 4 ‘सत्यकेतु कुल उ नहि बाँचा ; बिग्र-साप किमि होइ असाँचा । भरद्वाज सुलु हि जद होइ बिधाता बाम ; धरि मैरुसुम जनक जम ताहि ब्याल सम दाम।” । ये छंद इस कथा के अंतिम भाग में बहुत ही उपयुक्न हैं। दोहे से ऋवि में प्रकट किया कि ब्राह्मण हानिकारक नहीं होते, परं तु राज्य के लिये विधि चाम् होने से मैं ही नाशकारी हो गए, जैसे पिता तक यम-तुल्य हो सकता है। |: इस कथा के राजा, कपटी मुनि और फालतु प्रधान पात्र हैं। राजा वीर, धैर्यवान्, इनँ, परंतु मूर्ख था और कुसंगति से कुटिल तथा स्वार्थी भी हो सकता था। उसने ब्राह्मणों के साथ छद्ध किया, जिसका फल उसे पूरः मिल्ला । कालकेंतु पूरा माया तथा कार्यकुशल था, परंतु झपटी सुनि की भाँति बुद्धि-वैभव