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मिश्रबंधु-विनोंद

४८ मिश्रबंधु-विनोद काव्य-राति इस ग्रंथ-भर में साहित्य का विषय कहा गया है, सो उचित जान पड़ता है कि उसका भी सूक्ष्म कथन यहाँ कर दिया थ । विस्तार-पूर्वक वर्णन से इस विषय को एक भारी ग्रंथ बन सकता है, परंतु यहाँ दिग्दर्शन-मात्र का प्रयोजन है । भाषा-साहित्य का आधार संस्कृत-काव्य है और हमारी रीति-प्रणाली विशेषतया उसी से निकली है । भाषा के आचार्यों ने बहुत करके मम्मट के मत पर अनुगमन किया है, यद्यपि संस्कृत के अन्य वार्य बिलकुल छोड़ नहीं दिए गए हैं। हमारे आचार्यों ने संस्कृत का आधार मानकर भी बहुत स्थानों पर अपने पृथक् नियम बनाए हैं। हिंदी और संस्कृत दो पृथक भाषाएँ हैं, सो ऐसी विभिन्नता का होना स्वाभाविक भी हैं। प्रत्येक आचार्य ने पुरानी रीतिर्यों पर चलते हुए बहुत-सी बातों में नई प्रणालियाँ स्थिर की हैं। हमारे यहाँ इतने प्राचार्य हो गए हैं कि हिंदीवाल को संस्कृत रीति-ग्रंथ पढ़ने की अय कोई आवश्यकता नहीं रही है। इन्हीं अचार्यों के आधार पर यह कथन किया जाय। पदार्थ-निर्णय सबसे पहले पाठक कों पदार्थ-निर्णय पर ध्यान देना चाहिए । पद वाधक, लाक्षणिक और व्यंजक होते हैं और जिन शक्लियों से ये जाने जाते हैं, उन्हें अभिधा, लक्षण और व्यंजना कहते हैं। अभिधा से सीधा-सादा अर्थ लिया जाता है और लक्षणा में मुख्यार्थ न बनने से बह तट से ले लिया जाता है, जैसे लाठी चलती है" के कहने से उसके चलानेवाले का बोध होती है। ये कई प्रकार की होती हैं । व्यंजना में सीधा अर्थं छोड़कर और ही अर्थ लिया जाता है, जैसे दुशात्रों के पाँबड़े पड़े हैं। कहने से अहंकार यो अमीरी ब्यजित होती है। व्यंजना अभिधामूलक, लक्षणामूलक