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मिश्रबंधु-विनोंद

१० मिश्रबंधु-विनोद हैं । जहाँ छंद बिगड़ने लगता है, वहाँ गुरु की लधु करके भी मृदु उच्चारण द्वारा पढ़ लेते हैं; परंतु लघु अक्षर गुरु का काम कभी नहीं दे सकता । उपर्युक्ल तीन प्रधान उपविभागों में एक-एक में बहुत-से छेद हैं, यहाँ तक कि कुल छंदों की संख्या सैकड़ों पर पहुँची है और फिर भी पिंगद्धों में हैं हुए नियमों से हज़ारों नए छंद बनाए जा सकते हैं। छंदों के चरण में भी ठहरने के लिये कुछ गिने हुए वर्गों के पीछे कावट होती है, जिसे यति कहते हैं। जब एक चरण के शब्द का इर्ण दूसरे चरण में चला जाता है, तब छंद में यत्तिभंग-दूषण लगता है । छंद के खंडित हों आने से छैदोभंग-दृषण अता है ।। राणा . गणागण विचार भी इसी से मिलता हुश्रा है। इसमें कहीं छंद के प्रथम तीन और कहीं प्रथम छः अक्षर लेकर उन पर देवताओं के प्रभाव और फलों का विचार होता है । इसका कुछ कथन मनी- राम-संबंधी लेख में हैं। इसी प्रकार दुग्धाक्षर का विचार है ।

    • प फ ब भ ट ठ डे ण म स ह य क इ ब ल थ सत्रह अंक ।

कवित आदि मैं हु जनि कृरत राज से रंक ॥ गखागण विचार एवं दग्धाक्षर को हम बखेड़-मात्र समझते हैं। इनमें कोई सार पदार्थ नहीं समझ पड़ता है । साहित्य-गुण-कथन में आचार्यों का कुछ मतभेद है, जो विशेषतया केवल गुण-गणना-संबंधी है । श्रीपति ने गुण ॐ रसी धर्म कहकर दस शब्द-गुण तथा अाठ अर्थ-गु माने हैं। था- . शब्द-गुना = उदारता, प्रसाद, उदात्त, समता, शांति, समाधि, उझिअमोद, अधुर्य, सुकुमारता और संक्षिप्त ।.. . ।