पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/८७

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भूमिका अर्थ-गुण = भब्यकल्प, पर्यायक्लि, दुधर्मिता, सुशब्दही, अथै- व्यङ्ग, श्लेष, प्रसन्नता और छ । इन्होंने इन सब गुणें ॐ नृथक्-पृथङ् लक्षण दिए हैं। देव ने शब्द एवं अर्थ को मिलाकर केवल दस गुण माने हैं-यथा, अर्थ- उलेम, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थक, समाधि, कांति, औञ अर उदारता ।। हम इन्हीं को ग्राह्य मानते हैं और मोटे प्रकार से तो केवल श्रेज, मार्य और प्रसाद ही प्रधान गुरुग्छ माने गए हैं। ई आचार्य इनकी संख्या अपनी रुचि के अनुसार अर भी बढ़ा सकता है । अद्यपि स्वभाबकि एक अलंकार है, तथापि इस गणना गुर में भी होनी चाहिः । दद श्राचार्यों में बहुत प्रकार के दोष माने हैं और भिन्न-भिन्न प्राचार्यों मैं उनक; सत्याग्र के विध्य में यह अंतर है। दोष शब्द, अर्थ, वृश्यि एवं प्रबंध-संबंधी हो सकते हैं । वास में थोड़े ही दय कहे हैं, परंतु श्रीपति ने इनकी अच्छा विस्तार किया है । दास ने भी दीपों का उत्कृष्ट वर्णन किया है। कश्ोिं में यहाँ तक कहा है- ‘ऐसो कवितु न जगत में जानें दृश्न नाहि', परंतु इसे अत्युकि सम- झना चाहिए। भाई भाव-भेद, रस-भेद एवं अलंकार काव्य के मुख्यांबा हैं । हमारे प्राचार्यों में स्थायी, विभाव, अनुभावं, सात्विक ( तन- संचार ), संचार: { मनु-संचार ) अँर. ६३-मानक भाव के छः भेद माने हैं। कोई-कोई हाद के मुख्य मेदों में नहीं मान । स्थायी भाव वीजांकुर-सम्मान रस को अरण होता हैं। विभाव ॐ आलंबन र उद्दीपन-नामक दो भेद हैं। इस उप अलि बि स लै-