पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/८९

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भूमिका

( ४ } मान्छी , बधीर और अधीरा । ११} दशा=अन्य-सुरत-दुःखिता, मानवढ़ी और हार्दिता । ( ६ ) काजोर्षितपतिका, कहांतरिता, लंहिंसा, अभिसारिका, उत्कंठिता, बिमलव्धा, वासकसजा, स्वाधीस्पतिळा, अदस्यत्पति और अगतपतिको । (गुणब्र म्हा, मध्यम और अधमा । उपर्युक्ल भेदों के चैदतिर बहुत अधिक हैं। इसी की नायिका-मेद | रस की उत्पत्ति भों से है, जैसा कि ऊपर कड़ा आ चुका है। ‘ओं विभान, अनुभव अरु बिभिचारेिन र होय । थिति की पूरन बालन, सुकवि कहत रस होय” इस दौ प्रकार का माना गया है अर्थात् किक और अक्षौकिक 1 अढौकिक रस स्वामिक, मानोरथ तथा पदायक-नामक तीन उपविभागों में बँय है । चौकिक रस नव अार का होता हैं, अर्थात् भंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शांत } शांतरस नाटक में नहीं कहा जाता है। हरएक रसे अच्छवा था प्रकाश होता है । ऋ गार दो प्रकार का है--संय? और विश । संयोग-शुगर मैं दश हावों का भी ऋथन होता है ? वियोंग-अंगार में पूर्वानुराग्य, मान, अवास और छात्मकमळ चार भेदांतर हैं। पुराण में अभिल्ला, चिंता, सुमिरन, गुन-कथन, उर्दू में, प्रह्लाप, उन्माद, व्याधि, जलतः और मरण-नामक दश दशाएँ इंच हैं कवि जो भर के स्थान पर प्रायः मृच्छ-नात्र का बन कर देते हैं। मान लध, मध्यम या गुरु होता है । सहजै हाँसी खेल में, बिनै दम सुनि कान | पाँच परे पिय को मिटै लघु, मध्यम, गुरु मान्न ।” प्रवास दूर ची सनीप का होता है और करुयात्मक वियर के दो उपभेद हैं, जिन्हें क्रुतम