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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद प्रायः इसक्का भी अधिो ही रह जाता है ! ऐसी कुदशा में सिवा इसके और हो ही क्या सकता है कि थोड़े ही दिनों में बेचारी हिंदी भी संस्कृत की भाँति मृत भाषाओं १ Dead Languages ) में परि- नारिणत होकर शांत हो जाय और कोई दूसरी बारी नष्ट-भ्रष्ट भाषा उसकी स्थानापन्न बन बैठे ! इसका प्रयोजन कोई यह न समझ लें किं कुम्वः संस्कृत के मृत भाषा होने से प्रसन्न हैं, अथवा हमें उसको इस विशेषण से स्मरण करने में शोक नहीं होता, पर ॐ जति सत्य और अकाट्य हैं उससे इनकार करना भी व्यर्थ ही प्रतीत होता है। क्या ही अच्छा हों, यदि संस्कृत भाषा की गणना प्रचलित जीवित भाषाओं में हो जाय, पर बुद्धिमान् मनुष्य का काम यह है कि वर्तमान और होनहार दशा पर ध्यान देता इश्री इस प्रकार चलें कि आगे क्रौं कई बुराई न होने पावें ! हमारी तुच्छ बुद्धि में यह आता है कि यदि संस्कृत किसी समय में जन-समुदाय की भाषा रही होगी, तो उसका चलन इसी कारण सर्वसाधारण से उठ गया होगा कि उसका व्याकरण परम परिपूर्ण और संपन्न होने के कारण अति क्लिष्ट और दुर्जेय है। अतः हमारे विचार से हम लोगों का यह पवित्र कर्तव्य है। कि हिंदी को उस दशा में आ पड़ने से बचाया जाय । यह अभीष्ट कैसे सिद्ध हो सकता है, इसका ब्योरेवार वर्णन हम नीचे करते हैं- लिपि-प्रणाली ( १ ) लिपि-प्रणाली में कड़ाई न होनी चाहिए। कोई आवश्यकता नहीं है कि हम हिंदी-दाद्य में भी शब्दों के शुद्ध संस्कृत रूप ही व्यवहृत करें। यदि कोई संस्कृत लिखता हों, तो बात और है, पर हिंदी में वैसा क्यों किया जाय ? क्या संस्कृत और हिंदी में कोई भेद ही नहीं है ? फिर संस्कृत-शब्दों के रोज़ाना बोलचाल में प्रचलित रूप हिंदी में क्यों न लिखे जायँ और एक ही शब्द को कई तरह लिखने में कौन-सी हानि हुई आती है ? हम लोग सदा फ़ारसी