पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१०८

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मिश्रवन्धुधिनैः । [सं० १०८ पहले इन्ने कपिला में विद्याध्ययन किया और फिर काशी में जाकर पफ संन्यासी हैं तन्त्र एव साहित्य भले प्रकार पढ़ा। मिधजी पर साधु पुत्र और महान पद्धत थे। काशी से पुन महाशय में असाशर झाम ज़िला तेहपूर के राजा भगवन्त राय ची मैं यह ज़फर बड़ा मान पाया। फतेहपुर के गजेटियर में इस भागवन्त यं का हाल लिझा है। कुछ दिन में पह से असः न्तुष्ट होकर ये अकसर नामक ग्राम के चले गधे, जा दालसपूर से दी मील पर हैं। वहीं इंडिया नेरे के राय मर्दनसिंह की इन पर विपक्षमा दुई । भगवन्तरराय की भक्ति में भी सुखदेव के प्य ६ गये । सुखदेय जी बहुत दिने तुप डिया घेरे में ते रहे। इसके पीछे कुछ दिन तक ये महाशय मैगजेब के मन्न फ़ाज़िल अली के यहाँ भी रहे। अर्जुनसिंह के पुग्न ज़सिंह गैर के भी में प्राधित रहे हैं और अमेठी के राजा हिम्मतसिंई घन्धलगेरती ने भी इनको दरक्रिया । जी हिम्मतसिंह के हो? भाई भानू छरसिंह की भी इन्दा ३ अड़ी प्रशंसा की है। अन्त में ये महाशय मुरारि म रियासत के तत्काळीन राजा देवीसिंह के यहाँ मधे और उनके हठ करने पर मिला से अपना कुटुम्ब मैंगा कर दैलतपुर में रहने लगे । यहाँ राजा सादव ने इनके लिए मकान बनवा दिया और यह ग्राम भी इन्हीं के पुन फा दे दिया। ए । नाम देने का यह परिण पा कि मिश्र जी ने स्वयं ग्राम छैना पसंद नहीं किया। इत्त प्रम की जमीदारी इन चाधरी के पास बहुत दिन रहीं परन्तु मन चह कालगति से उनके हाथ से निकल गई है।