पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१२४

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| मन भुपिनाम्।। [२० १७६१ नाम-(४ ३७) विजयप जैनो साधु विमचन्दा शिष्य । अंध-मुरनुपरी प्रयन्ध ग्रन्थ स.--१७६६ ।। दिघर–सुसुन्दरी प धा। ( ४३८) घनश्याम शुक्ल ।। ये महाशय असनी जिल्ला फ़तेदपुरवासी मान्यज़ सय सवत् १७३७ के गम हुए। ये वनरेश ॐ यद ये पार उहाँ ६ प्रासा में इन्होंने इति । इनका एक वा काशी नरेदा की प्रशसा का भी सरोज में लिया है। इन एक छन्द में चपनी इन्दि आया है, जिसे से इनः आपूनित्र कर होने या मम हो सकता है, पर ऐसा सोचना न चाहिए, क्योंकि अंगरेज ॐग जहाँगीर के समय से ही भारत में आये थे, सो परिवार के समय में पैसे द्धि के प्रपे में कैई आश्चय ना ३। इन्दैन दलेली का भी चयन किया है, जो औरङ्गजेंय का तैनापति था। सरोज भार ब्राज्ञ में पंव घनश्याम का सर्बत् १६५५ लिखा है, पर यद् दूसरा कवि जान पड़ती हैं, क्योंकि उस समय दलेल उत्पन्न भी नहीं हुआ था । इनका केाई प्रय देखने में नहीं आया, पर सरीज्ञबार नै इनके प्राय २०० छन्द दे दें। इभारे देखने में इनके थोड़े से ही इन्द प्रायें हैं, पर पद्द परम मनैाहर हैं। वीर रस का इन्द्रेने बहा लेम इर्पण घन किया है। पैसो सवल कचिंता मत कम विज्ञ कर सके ।। क्या चीर और श्या भरि इन्होंने हर पफ ।यन