पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१४८

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३।। fuथ्यन्धुपिनाद । । मैः 1 तेईसवाँ अध्याय।। आदिम देघ-काल (१७५१ से १७० तक) । (५३३) महाकवि देवजी । घेय उपनाम देथ कवि इटावा १ः रद्दने याले सना प्राय थे । त्रिका जन्म संचेत् १७३० में दुमा था । संयद १८०२ । इनका दृष्टान्त होना अनुमान-सिद्ध है। ये फेवल ६ प्रर्ष की थोड्या यम्मा सेउत्कृष्ट पता करने लगे थे। इनके कभी कोई उदार अध्य- हाता नहीं मिला पीर इसी के पेज में अथपा अन्य किसी कारण से प्रायः समस्त भारत के प्रत्येक प्रांत में घूमै |इस का प्रभाय इन की कठिा पर घटुन ही अच्छा पड़ा और प्रत्येक स्थान के निवासियै का इन्सो चर्शन किया है अपने समस्त अश्रियदाताओं में भीगालाल को हाल इन्हों ने सई से विशेष अद्धायुक्त लिझा । काई पाई र ५२ प्रन्थों का सेर कई ७२ अन्र्थों का रचयिता मानते हैं। इम इनके नग्न उन्नत ३७ ग्नन्ध के नाम मालूम हुए हैं, जिनमें प्रथम १७ ग्रन्थ म ने देने भी - | (१) भावविलास, (३) अष्टयाम, (३) भवानीविलाल, (४) सुन्दरीसिन्दूर, (५) सुजानपनेद, (६ } प्रेमतरङ्ग, (७) आगरकर, (८) कुलविलास, (९) देवचरित्र, ( १ ) प्रेम- धद्रिका, (११) जातिविलास, (१२) रसविदास,(१३) काव्य- रसायन या दरसायन, (१४) मुरसागस्तरङ्ग, (१५) देव- मायामपसनाटक, (१६) वृक्षदिलास, (१७) पावसपिळास(१८)