पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१५४

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मिश्र पिनाम् । [६० १५५५ मज्ञराज्ञ काज महलाद भुय दैया सिन्धु असन सरन । प्रभु मम ममा कवि र कदि नाराय; जार उद्धरन । नरम्राही अभिमन्यु को घिर डुलाया शोस । रच्या मालक फी की हैं कृपाले गर्दास ॥ अपुन कधी युद्ध हिँ भ्रनुप दिया भुच दारि । पापो वैठे गैद कत पांइ पुन तुम चारि ॥ शप तजि लल्ला सजी ती सक फुलफानि । मालषः नई पठाय के आपु हे सुप मान ॥ दौरछर्नु दीघ्र भुजा दोघ पैर पाय ।। फातर ६ ५४ सदन बहु चयन्त काय ।। । फबच कुदेल इन्द्र दाने दाग: कुन्ती ले गई। भई वैरिन मेदिनी चित क्र ३ चिन्ता भई ॥ मज्ञ रछन भने अनट पचन धिन धलि । भुज्ञ पर कर घर सुभुज पर गिरि वर धरन गोपाल । नाम-(५३५) अनन्याली ! रचना-अनन्य अर्ल का काव्य। समय-१७५६। विमरण-इनके चिन छीटे आर्दै अष्टक तथा छौला आदि के सुग भग १०० ग्रन्य हैं, जिनके नाम अल्लग अलग विस्तार भय से नहीं लिये गये ! इनकी कविता साधारण श्री की हैं। कुल ९८४ पृष्ठों में इनकी रचना हैं ।