पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१६१

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सीताराम ] गुवकृत प्र.मरग्य 1 या टहरा दूजी सम्बदाई गति मा नुहाई । रुप रसिक गाई छवि छाई विश पूरनना पाई it वृन्दाबन जमुना र रग्य । हरि व्यास सरन तिन से अगम्य ॥ हे नव निरुज्ञ महँ मन सुरज 1 | तुमि पैन अलि पुज गुज । खेज में इनकी वृन्दावन माधुरी' का भी पता चला है । भाम-{५४ १) रामपया शरए सीताराम मिथिला वासी। समय-१६० । चिंचग–प्रायः ४०० पृष्ठों में साक्षाज्ञी यी कथा चर्णित हे । मधु- सुदनदास श्यों का कान्यि है। यह पुस्तक में दरबार छतरपुर में देखने को मिली। समय जांच में लिखा है। उदाहरण:--- पितु इरतन अभिलाष जुगुल हूँ परन मन आई। गुरु सनमुन्न कर जारि भाति नहु अनय सुधाई ।। पुसके गुरु लखि सोल रान फै। अति सुन्न पाए! वादि सर्भ सत्र सम्रा सग लडिमी निधि आए । (५४३) जामकरसके शरणी में 'अबध सागर' नामक पक भारी भन्ध राम था मान में युनाया, जिसमें १५ अध्याय बार ५१९ छन्द है। इरम अष्टयाम विद्युत रूप से हैं और वन- विलास, जललि, रास, सभा, भोजन, शयन बि के सविस्तर थन छ । यः ग्रन्। छगूर में है । इनका कविता काल जांच से स० १७६० जान पड़ा।