पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२०

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५।। मिप्रशन्नाः । [सं० ११८ यिना पट्ट ऋतु का पूरा पन प उपका टाः अनुमय नहीं । किसी। | उड़ती के साप ही साथ सेनापति ने अपनी रचना में वनिता की मात्रा भी ट्रा रा हैं। उनकी इस शह का दीपक था कि [ उनी विना फेा न समझ सके, अती उन ने कहा है कि "खेनापति घरनी है यया सर; रितु मैन के अगम सुगम परेधीन '।। सेनापति ने स्वयं लिया है कि उन्हों ने अपनी कपिता के पद चुन सुन कर रपे हैं। अतः यदि कोई इनकी कविता में ई उप अधना शिथिल छंद हूँटना चाहें, तो उसके पर्थ का श्रम उठाना पड़ेगा। इनके सभी छंद उत्कृष्ट हैं । अरङ छंद फै उदाहरण में यह एक छंद देते हैं। दूर जदुराई नापति सुखदाई दे। | आई रितु पावस न पाई प्रेम पतियः । धीर झलघर पी सुनत धुन घरकी सुदरकी । | सुदागिन की छेद भरी छतियाँ ॥ आई सुधि पर की दिर में आने जरको सुमिर माने प्यारी यह मौतम की वतियाँ। बीती मैरधि आपने की लाल मन भायन की छुप भई बचने की सावन की रतियाँ ।।