पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२०७

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FT अनिन्छ । | पूवलंत मझए । ६२६६ अभुत प्रभूख महि मंइन परेते परे जीवन के लाडु हा हा फ्यौं न ताहि हिरे । प्यानंद का मन छोयो रद्दत निर तर ही सरस सुयस पर पन चदिरे। यमुना के तार केंलि केहिल भर पेसी पायन पुलिन १ पतित परि रहि ॥ १ ॥ ऊधी विधि ईरित भई ६ भागकर जही रति असदा सुन्न पायन परल की। गुम ना है लीस प्ररयौ नहि धूरे जोक। कदिए की निकाई गदिमा सरस की ।। झुम्योई इरा सदा आनँद की घन जहा। म्यात भई ६ मतिं माधुरी बरस की । अग्वािम लगा ६ प्रीति पुरन पी है। अति आरति जो हैं भज्ञ भूमिके दरस की 1} २ ॥ इन के इस ग्रंथ से है। एन उवात्तुरण नीचे देते हैं। सरस सुगंध भत भांति भाव फुल बिके समरस रीति में कसरि फी झोना। दिल सुवासना चसन क्ष सुथार ज्यो । चैकस ननि गस्य गूढ नास आला ॥ . प्रचल्ल, बिरस : सूप्स है देऊ एक बालक सतीने मिठचालना।