पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२२१

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नागरीदास] मुलकृत प्रक। ६३५ इनका जन्नसषद् १७५६ पद कृ० १२ । अगर प्याई १७७ मैं गायनगर के राबत् यशवनसिह फी कन्या से हुआ । 'आपका प्रथम पुग्न मरगयी मार दिय पुष सरदाररित भी पिके उत्तराधिकारी g"। ये महाराज सस्न, फारस्रो, हिन्दी प्रेर डिग भोपाओं के अच्छे पङ्कित ६ । मार भी कई मात की भापायै, गधा गुजराती, पजावी, गडवादी इत्यादि का भी अभ्यास इन था, जैसा कि इनफी रचना से प्रकट जैसा हैं । सभय हे कि अपने स १७८० से पहले काय करना प्रारम्भ फर दिया है, क्योकि आपको पहला झर्थ अर्थमंजरी स० १७८० में समाप्त छु ।। कधि पाने के साथ ही साथ ये म्याप वर f/ थे। इन्हें ने केवल इस वर्ष की वाल्पनिया में एक उन्मत्त हाथी का सामना करके तक ही बार में उसे विचलिन कर दिया था। १३ घर्ष की अबला नै इन्दा ने यूपी के राजा जेतसि ह का समर में बंध किया। स० १७ में अपने धूण के उस सरदार को पराजित किया, शि जे। जयपुर तथा केटा के महाराजो सै त भ ज्ञासका था । पीस चकी अवस्था अपने अकेले हीपक सिह फेा मारा। महाराव से भी इनसे युद्ध हुआ था गैर घार सम्राम होने पर भी न्हाने उन्हें फर नई दिया । और भी अनेक उद इन्द्रेने कि जिनका चर्यन यद्द अपाङ्गगफ हैं। | महाश यल्लभाय सम्प्रदाय के भौगच्या रात्री के शिष्य और ब्रज तथा मैयासो छ के पूर्ण भक्त थे।