पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मिचिनाइ । [सं० १०८ परन्तु जय उन ढगे की यह पिदित हुआ कि ये सुकवि नागरी- दासजी ३, तन्न फ्या पूना था, उ यी प्रसन्नता और प्रेम से इनकेसमीपाड़कर जाने लगे और आग्नपुर्वक इनके पद तपा अन्य कविता सुन कर आनन्द उठाने लगे, जिसका मद्दश्य पर्यन पम् नारीदासज्ञ ने यों किया है :- सुन यवहारिक नाम भी दाढ़े दुरि उदास दारि मिले भरि नैन मुनि नाम नागरी दास । अर्क मिलत भुजन भरि दारिदरिः । यक हैरि चुलाचत और मेयर में के थले जाते सहनै समाय । पद गाय उठ्न भेगईि सुनाय ॥ है परे भूरि मधि मत्त चित्त । तेऽदौरिमिदन तजिरीति नि ! अतिसष बिरेच जिनके सुभाव । जे गनत न पा रक राय । ते सिमट सिम्मिट कि अाय आय। फिरि डाँड़त पद पढदार्य गयि ।। ऊपर की कविता से विदित होता है कि इनके वाय पर लेागेi का कितना प्रेम था ? रिसर में शायरे का मत हैं कि कृद्ध मदुन वाद मई म यी "जितने शायर हैं फ़ना के घर है उनकी नमूद । मुल्क से माइम जब उन्वा हुआ ददत हुई । इन कद्दापते के नागरीदास की कविता नै गलत साबित कर दिया। महाराज नागरीदासजी के ग्रस्त झाटे बड़े ७५ ग्रंथ हैं, जिनमें से ७३ के छार्टी सांची के तीन भागों में विभक्त घरकै वैराग्य- सगर, सिंगारसागर पार पसामर के नाम से झोनसागर अंधालय में माटिक श्रीधर शिला ने महाराजा साहब ष्य-