पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२३१

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मागदास ! गूदक्षत छ । इश्क उसी की झलक हैं सूरज की धूप। ज! इक तहँ अपि ई फादर नादर रूप । श्रया इफ लपेट में साईं बइम पेट! ई माया मलफ में गर भर सब पेट में रस उरझी निास रुयाम से; आरस उरई चैन । है। उरझी अलक में मेरे उरहे हैन । नींद भरे तन काटप के दृगन की है। नागरिया के उरवली जुन रहरी बैर है किवें दिन धिन वृन्दावन स्वाप । यह वृध गए हैं अचल राजस रंग समाए । छाद्धिं पुलिन फूलन की सजी हुई सरन पर गए। भीने रसिक डानन्य ने दरले विमुन्नन के मुत्न जाये हरे धिरर की और रहे नई अति अभाग्य Eढ़ए । कलह सराय बसाय मिठारी माया छ नि ।। इकसर वाई में सुख शॐि ३ बर्दू में कहुँ रोए । कि म अपने कजि परार भीर सीस पर द्वैग ॥ पाये। नहीं अनंद छेल सदे देस इकाए । नागरिदार यसै कुजन में जब सत्र निधि सुख भार ।। साथै की अंध्यारी त सुकि बावर नंद फुधौ घरलावें। स्यामा अपनो के ची अटा पैकी सति मलाई मात्रै ॥ ता समें मैन के हग दूरि ते अनुर' प फी भीम य पार्दै । धान भयो फरि यूँघुर ट्रा दफा कर दामिने दीप दिन्नावे ||