पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२३८

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मप्रपन्धुदिन् । [१० १७६१ करते हैं पर उन्हीं के मन्त्री की आज्ञानुसार यद्द अथ अनन।' वाहते हैं, अतः निचय है कि यह भून्य इन्हीं महाज़ि के जित्न काल में बना । बिरीलाल ने अपने अर्थियदाता मिरजा राजा यदिदं की प्रशंसा के ये लिये ६, उन पर है उम्रने में सृष्ण कबि ३ सयाई जयहिं की प्रशंसा की है। उन में होने जयसिद्धं द्वारा जजोया के छुटने तक की दाल लिया है। यह घटना सवत् १७८० के छग भग की है । फिर संवत् १७८७-८८ भी बड़ी घड़ी घटनाओं तपः ६ इन्हीं नै पर्सन नहीं किया, यद्यपि प्रथम पी छोटी छोटी घटनायें भी डिग्री है । इस से अनुमान देशा है कि यह टीका सचत् १७८५ के लग भग मनी । शृप्य की पार्त्तिक टीका से विदित होता है कि ये महाशय फायगों को मठीभाति समझते थे, क्योंकि इन्ह नै विद्दारी | टीका में वयांगों कैर ही दिखाया है। इन का काय घड़ा ही सन्तोप- दाय पर भाप बहुत मधुर है 1 दाद्दों पर इन्ट् कहने में इन्होंने मूल का आशय है। रक्षा दी है, किन्तु अपनी ओर से भी बहुत कुछ मिलाकर टीधा फै। अत्यन्त मना कर दिया है। इन के छ उदधा से नहीं दे पड़ते हैं और उन में स्वतन्त्र कविता का पूरा याद मिलती हैं। इन्होंने प्रश भाया में रचना फी पर अनुप्रास यमकादि का बहुत अादुर महीं किया। एम इनका ताप फाधि की भैण में प्रते है। गि कत्र सीस किरीट बन्यो रुचि साल हिये घनमाल लस ।, कर कजचे म अली मुरली फनी फ ारु ममा यसै ।' कवि इम्य फ६ ग्व्र सुन्दर मूरति यो अभिलपि हि सरसै।