पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२६२

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हिन्दी पी चर ] मचत किए । ६७६ भी इस प्रकार निर्लज्ञातपूर्ण ऋगाररस की कविता की, मानें वह स्वप’ पुरुर हैं। इस बात से प्राचीन प्रथा का पल देख्न पड़ता है। ऋगरी कवियों में दरा, दास, पाफर, प्रताप सेवक, फुर, रघुनाथ, पैरीधा, गुरदसि ६, शनि, देचीनन्दन, बेन- प्रधान, ग्वाल, तप, पज़नेस आदि बहुत से परमेराट फपि इस समय में हुए, जिनके नाम सुन कर वित्त वर ५सा मगाव पड़ता है कि क्या पैसे उरद्द कवियों के होते हुए भी वैई इस काल में किसी प्रकार की न्यूनता पतला सफता है ! घासत में हिन्वी | फाय अत्यन्त प्राप्त और गरिमा सम्पन्न हैं। जिन कवि के नाम पद लिने गये ई चैसे सरस्वती के छाड़ दूसरी भाषा में कृष्टिगता है । जा सकते हैं। सार काल की हिंदी में अनुप्रास | को त अधिक दर न था, पर बिहारी और देव ने सफा अच्छा सामान किया। इसी समय से हिन्दी के पचिपे में इनका बड़ा प्रकांड आदर होने लगा । पद्माकर ने सस से अधिक अनु प्राप्त का अपनाया ! प्रताप की भापा पम प्रसनीय है। धर्चमान खड़ी चेली वाले गद्य का माना जन्म ही इसी समय में | हुआ। चत् १८६० में राहु छ ने ब्राभापा मिश्रित पड़ी चाल्ली में प्रेमसागर नामफ पर भारी ग्रन्स रचा | उसी साल सदल मिने शुद्धतर खो बैठीं में नासतगिरगान नामक एक अपूर्ण बनी कईभक विदे श इस समय प्रायः पूर्ण अभाव रहा। दारा की। कहा भी है कि आगे के सुकवि रीझ ६ ते फदिवाई 'न र राधिका फन्दाई सुमिरन के यानेा है । इसने ‘पटे पड़े । र गंगा की पूरी झलक मिलती है। भक्तों का साम्राज्य सुरु