पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

| जीवनद] मुत्तराफ़त करए ।' कई वृद्ध महाशय देसे थे, जिन्होंने दरेंद्र दशा में रहते हुए भी घनापान के लिए याज्ञीचन आई समुचित काम नहीं किया और दूसरे हों के सहारे अपना काटक्षेप किया। अब ऐसे मनुष्यों की संख्या बहुत घट गई है और दिने दिन अटती जाती हैं । अर्थकांश दैसी रियास में आज तक यही दशा है। चाहे सेक। दज्ञारे मनुष्य बिना कुछ किये ही राझा की उदारता से कालक्षेप करते हैं। | वन-डे (=truggle for rxifence } प्राबल्य के अभाव से हमारे यहाँ पश्चिम की महिमा पाश्चात्य वैशे के समान भी नहीं हुई। इसी कारण स्ने इमारे यहां, विद्वान् मनुष्यों तक का प्पान व्यापार-सम्बन्धी उपयैाग्र चिपयों की ओर नहीं गया और हुम अपनी कविता में रोज़ाना लाभदायक बाते का याचित विवरण नहीं पाते हैं। पाश्चात्य देशों में कई शताब्दियों से जीवन- हाड़ की प्रबलता पिर है, जै दिने दिन चढ़ती चली आई । इस हेतु वहाँ साहित्य में साधारण घटनाओं से सईंय सम्पर्क मा है और वह अनुपी विपये से प्रगढ़ मित्रता नई घर पाई। | कई कार से घडॉ देवातैपिता पर गई फा हुन दिने से भरी अनुराग रहा है। इस वासना में भी उन्हें देशहित- साधक निपी फी ग्रोर मूत्र मुगया। हमारे यहाँ अँगरेजी राय से प्रथम समस्त भारत की एकतर पर अधिकता से विचार कभी नहीं किया गया। यहां ईश्वरभक्ति की प्रचुरता के इंते हुई भी देशभक्ति का मैरव प्राचीन काल में नहीं पड़ा। भारत में