पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२७२

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दास ] अराला मकाए । ६८९ परन्तु कहाँ कहीं इसमें कुछ अन्य इद भी अगिये हैं। इसकी फपिता साधारण गरन्तु निदेश्य है और भाषा गोस्वामी तुलसीदास से मिली जुलती है । गैरवामी जी ने घाबी चापाइये। में फथी बन की प्रथा ऐसी कुछ स्थिरः सी कर दी है कि सर्व कवि विना जाने भी उस पर अनुगमन कर बैठते हैं । इस ग्रन्थ की कथा रोचक और कविता सराहनीय है, परन्तु जान पड़ता ६ दास जी के अन्य ग्रन्र्थों की साहित्य-भौताकै कारण इसका प्रचार नहीं झुमा । | इन्हों ने अपना दूसरा झन्थ रससारांश संवत् १७,१ में पनाया। सत्रह से यपान नग सुई छठि बुधबार । | अपर देश प्रतापगढ़ भयो अथ अधार । कैसी कि इसके नाम से विदित होता है। इसमें सुमतया रस का धन किया गया है। जैसे देव जी ने जाति सन किया है, | इसी प्रकार; दासजी ने मी भिन्न भिन्न जाति की स्त्रियों का कथन किया है, परन्तु उनके मायिकी के रूप में न दिखा कर दुतियां के रूप में लिया है । इन्धा ने निम्न लिरिल लिये। | पा सूती करके धन किया है:–भाय, सग्नी, नायन, नटिनो, साभारिन, पतन, युरिद्वारेनि. पटरने, घर इनि, रजनी, संन्यासिन, नितैरिने, धेविन, कुम्दाने, अनि , विनि, गन्धिन और मालनि । सघ कर्मियों द्वारा कहे हुए दस हाच के अति दास जी ने मार भी दस डाव कहे हैं, अर्था, बाधक, तपन, । त, एसित, कुतूहल, जीव, फेल, विक्षिप्त, मद और देला। अन्य भाची के अतिरिक्त इन्द्रेने ग्रीति के भी एक भाव माना है।