पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२७३

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म।। मिश्यन्धुवनेाद। [4 1983 परवीगामें के अतिरिक्त दास जी ने साध्या परकीया। वा भ* वन विया हैइस ग्रन्थ में दोहा की अधिकता है, आ देहे वधा गद्यपद है, परन्तु है भी ग्रन्थ मा बना है। उदाहरगास्यरूपं इसके दाद नीचे गिने जाते हैं। हाल चुरी सैर पली गित निपट मलीन । इरियारी कर देगी है। ती हुकुम अर्धान ॥ जे दुस्र से प्रभु राज्ञी रही ना चहा सुन रिन्नुम सिन्छ बड़ाऊँ ! ॐ यद् नींद सुनी नई श्रीन सो कान सैप है। द्विय मान गहा॥ नै य६ि सेचि परि मूरि' की विनती प्रभु साझ पदाऊँ! झीन लीक के नाथ सनाथ हैं। हैं। ही अकेली स्रनाथ कहा। नामपकाश (अमराप भया) सन् १९५५ में श्वना । इस ग्रन्थ के प्रवाशक ने प्रत्येक नाम के अलग अलग लिप्त कर था अपकार कर दिया है। अन्त में एक दानुक्रमणिका भी की है। जस से शन्द के जने में सुविधा देती है। इस ग्रन्थ की राना 1धि छन्दों में हुई है और इसके छन् निर्दोष एव सरनीय हैं। यह ४०० पृ का एक बड़ा अन्य ६।। | " र्णन पिगल" इनके चीथा ग्रन्थ है। यह सर्वत् १७९९ में •बना धा। इस में दास ने पिल का वर्णन किया है, जिसे में छन्दों के अतिरिका मेरु, मकंट, पताका, नष्ट. उद्दिष्ट,पस्तार इत्यादि भी है गये हैं। अन्य साधारणतया अच्म है। इनका पचम प्रन्थ यिनिय सर्बत् १८०३ आयिन विजय दशमी के दिन समाप्त हु । यद्द एक धडा अन्य हैं पीर दास की प्राचार्यता इसी की