पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२७८

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वास] उत्तरात प्रकरण । ६११ बहुत बड़ा दैप है पै कि अन्य कवि की उकियां के अपनी कविता में चैधड़क रख लेते हैं। इस कथन के उदाहरणस्वरूप इनकी रचना में बहुत छन्द' मैजूद हैं । बिचारे श्रीपति कवि पर यह अपनी इक़ सिौप रूप से समझते थे यह सुक कि श्रीपतिसराज के अध्याय

  • साग से मान उठाकर मापने जैसे है जैसे अपने फायनिर्णय

में इसलिये हे अँार इस बात को स्वीकार करना है। दूर रहा अपनी कवेपे की नामाबली में श्रीपतिज्ञी का नाम तक नहीं छिपा, माने में उनकी जानते ही न थे। सस्कृत के बहुतैरे लों के अनुघा भी इनकी कविता में वर्तमान हैं। इन दा देरी के होते हुए भी इनकी वार्यता माननीय है। दशांग गाय बहुत ही उत्तम रीति से इन्हें ने समझाया है और इनका वेलचाल भी वहुत ध्ध है । भाषा साहित्य के चाय में प्राचार्ययता की दृष्टि से इनका पद बहुत से न्यून नहीं है। कविता की उत्तमता में ये महाशय दूसरे दर्जे के कवि हैं। इनका पोय पदय सराहनीय है। यदि । माशय मयि न करके भाग-साहित्य की समालोचना में अपने को लगावे, है। यद । षा का अधिक उपकार देता। इन के विषय में एक पाव सर्व- प्रधान है कि इनका भाषा-मायुय एवं प्रसाद अन्यन्न सराहनीय है। मेर इनके बहुतेरे एन्दु मतिराम शव देव तक फी उत्तम रचना से पूरी तुलना के योग्य हैं। (७) ४) राजा गुरुदत्तसिंह उपनाम भवति ।

  • में मदशिय धल गेत टाकुर एवं अमेठो ६ राजा थे। इन्हीं

| ने संवत् १७९१ में सराई नामक सात सी देर का एक