पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२८०

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गुदप्तसिंह ] उत्तरालंकृत प्रमण् । कहते हैं कि राजा साहब ने कई वर्षों के पीछे अपना राज्य फिर पाया ! राजा गुरदत्तसिंह जी की सतराई की एक हस्तलिशित प्रति इमारे पास पर्तमान है। इसके द्वैमने से जान पड़ता है कि इन्हेंाने कंठाभरण पैर रसरत्नाकर नामक दी और देश के अन्य बनाये हैं। सासई में इन नि अन्धा के छन् बहुतायत से उद्धृत किये गये हैं। स्वाज़ में भागवत भाषा और रसदप नामक इनके दे। अन्य और निकले हैं । अतः कुल मिलाकर इन पाँच ग्रन्थ हुए। इनकी कविता बहुत सरस और भाषा अत्यन्त मधुर और सुहा- चनो देढी ध। बिहारीलाल के अतिरिक्त भार किसी भी देदकारी फवार उत्तमता और सरसा में इनकी कविता से नहीं बढ़ पाती। प्रत्येक विपरा पर इन्हें ने बहुत ही मनोरन्जफ मैर सी कधिला की है। राजा साध नै विदारी की भांति धाड़े गर्दी में बहुत सा भाव भर रफ्या हैं। इनकी रचना में संदिप्त गुण को बहुत अच्छा चमत्कार ६ । इन्दी में भाग का भी यर्थेष्ट प्रयोग किया है और उसमें शप्वालंकारों का खूब समारोह क्या है। इपक, उपेक्षा, उपमा कयादि अलंकारे की भी छटा सततई में प्रभा फैलावी है। इसका विपय शुमार प्रधान है। दाहाये के चमत्कार की राजा सान नै चूम ही दिखाया है। सत्रह शतक ईकानदै कातिव, सुदि युवार। ललित कुतीया का भय सतलैया अवतार । घुट पट की आड़ ३६सति जनै बह दरि। स मंडळ ते तश्च कति जनु पियूप फी धीर ।