पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२९

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१४६ पूर्वालंकृत प्रकरय । सेश सरीवर राऊत हैं जल शदक रूप भरे भाई ! गंगन अप्पर तग उड़े' मर्दै मौन कटान की चपेलाई । प्यास तो भR अंलि छैन पिर्थ' सिगरी उपमा धुच पाई। प्रेम गयंदनि दारे ६ हरि के कैजन केल चहूँ, दिसि माई ॥ जीद दस कछु पक सुनि भाई, इटि जस अमृत तजि विष लाई । दिन भगुर यच्च देह न ज्ञानी, चली समुझि मर ही माना । घर घरनी के रंग राच्या, छिन छिन में नट कपि य म । बन्न । ति ज्ञात न ज्ञानी, जिमि सावन सरिता के मनी ॥ मायाँ दुख में ये पटायो, विषय बद ही सरबत्तु शान्यो । काल समय जग 'अनि तुलाना, तन मन की सुधि सबै भुलाने । | धुपदइस बमळारा विहाँबंश के प्य हुए थे ! ॐ सदैव उन के प्रिय है और माने गये। (३८) स्वामी अतुभुजदास जी अष्टछाप वाले इस नाम के कम से पृथक हैं। उनका समय ११२५ था और इनका सं १६८४ । इनके घनाये हुए धर्मपिवार ( ४० पद), पानी { ६८ पद ), भाप्रताप (१५ पद् ), सन्तप्रसाद ( १८ पद) सिगार ( ५६ पद), हितपदेश (४६ द ), चरिताधिन (१४ पद) मेहजस ( २० पद), अनन्यभजन (४२ पद); राधापताप ( २२ प ), मंगलसर ( ४२ पद ), और चिनुत्र सुमॅशन ( ३४ w६) नामक अन्य इसमें पूरः दे हैं। इन प्रन्ध में पदै ही में चने हैं। द्वादश-ग्य भी इन्हीं पी पके धमा ६ । हुम इन्हे साधारण थैर्ग में बक्यौ ।