पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सीन 1 उत्तराखं प्रकरण । - सा जाता है। इस विषय का भी इन्हों ने बड़े बिलारपूर्वक और भली भाँति कहा है। उद्दीपन में पट ऋतु का भी धन अर जाता है पर उसे भी इस कयि ने दूब निभाया है। इसी प्रन्थ में एक याहुमसा भी अ है । रसन ने कहा है कि यदि कोई यह मुन्ध ध्यानपूर्वक पढ़े तो उसे रस का विषय जानने के वास्ते किसी दुसरे ग्रन्थ के पड़ने की आवश्यकता न रखें ! यह कथन पूर्णकर से यथार्थे हैं। यह मुन्ध संवत् १९९९ में समाप्त हुआ | उसलोन ने मुसमान होने पर भी प्रत भाषा बहुत ही शुद्ध ही हैं । इसमें फ़ारसी के शब्द नहीं आये हैं। इनकी तथा किसो झाझा फचि की भाषा में कुछ भी अन्तर गर्दी है। यह इन्हीं का काम था कि फारसी के पारगामी दर भी थे ऐसी ठेठ सजभर में फचिता करने में समर्थ हुए | इनकी कविता सराहनीय है। हम इन्हें ताप फचि की धणी में रखते हैं। मुकुन भये घर स्वयं के कानन बैई जाय। घर औवत हैं मैर की कीजै कीन उपाय ॥ फत देवाय फामिन दुई दामिन फै। यह वाह ! घरथरात सो झन फि६ फरफराति घन महि ॥ क सावति विकसित कुसुम अहँ लावते बयि । कई विद्रावति चाँदनी मधु ऋतु दाल आय ।। कुमति चन्द प्रति वीस बदि मास मास कहि आय। नुव मुन्न गधुराई की फोको पारे घदि जाय । मृद्ध कामिनी फोम हे सुन घाम में पाप ।। नेवर झमकायत फिरे दैयर के दिग जाय ।।