पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२९५

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२ मिश्रकुपिनाई ।। अनुज फाया कमला धी कई रघुनाथ मातेर | पापा यिण सा सा ज्ञानत जगतु हैं। माथे १ मईस राय, मित्र कदि भित्र माध्यो, ऐसा नऊ तक तुलनाई न रहनु ६ ।। भूप घरिबंद अस पर कुलीन भागे घीकर से देखत सुधका लगनु है ।। उत्कृष्ट छन्दों में देते हुए भी नाथ म कतर कद्द कष्ट बिलकुल गद्ययत् हे जाती हैं। काव्यकलाधर सर्बत् १८०२ में बना। यह भी १५० पृष्ठों का एक सड़ा हान्य है। इसमें भाव-भेद धार इस भेद चीन । पुनाथ ने भाविका-मैद है। विस्तारपूर्वक कहा ही है, परन्तु नायक-भेद को भी घड़ा वस्तार किया है। यद्द भी रिसकमाइन फी भाँति प्रशंसनीय हैं। इसका उदाहरणस्वरूप केवळ एक छ यहाँ लिखा जाता हैं। कधी कॐ पट पीत की सुन्दर सास धरे पया गराठी। हर गरे विच गुंजन के अल* छवि और ये छष्ट्राती ।। नैलठ ग्वालन सा रघुनाथ ॥ ॐ गलन से जन्नपाती । आ रंग सावरी तै। न हि ती काहू को डाठ के लग जाती है अम्तमेट्न सवत् १८०७ में पना । इसमें रघुनाथ ने लिजा है कि- महराज वारंप ने मैं एर अनुफुल ! गाँव नाव सम्मति दिपेश किया घदेन के तूल ॥