पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मिधन्यवाद्। [सं० १२५ अनुज हायेर कमल का कई रघुनाथ नाते पापा वि से सानिने गनु ६ ॥ माथे पे मद्देस राय, मित्र कहि मित्र भाष्यो, पैसा जऊ तक तुताई न तु ।। भूप धरिवंद जस घर कुलीन आगे ' घर से देत सुधार लगनु ६ ॥ उत्कृष्ट छन्द्रों के होते हुए भी रघुनाय की कविता की कई बिलकुल पचयत् है। ज्ञाता है। कास्यकलापर संयम् १८०३ में बना । यह भी १५० पृ का पकं वहाँ अन्य ६। इसमें भाव-भेद र रस-भेद के यन हैं। रघुनाध ने नायिका-मैद वे विस्तारपूर्वक कदा ही है, परन्तु नायक-भेद पा मी वहां विस्ार किया है। यह भी रसिकमाई की है। प्रशंसनीय है। इसका उदाहरणस्वकप केवल एक छन्द यहाँ लिया जाता है। का फले पट पीत को सुन्दर सॉस घर परिया रँगती मुरि भरे विच गुजन के अन्के रन ही छाती ॥ गलत ग्वालन हो रघुनाथ ॥ ॐ गलीन में री उतपाती। जा रँग साँचपे होते न इडित शाहू मी टि फडू लमि जाता है। जपतमेशन संवत् १८es में बना । इसमें भुनाथ ने लिखा है कि- महाराज्ञ वरिई नै है भी पर अनुकूल । यि नाव सम्पत्ति दिये किया पड़ेम के मूल ।