पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३०२

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उत्तराखंबा प्रय (9२६) भारयशाइ चिजना के प्रथम जागीरदार दीवान सान्तरिह के पत्र में । अपने संवत् ११७९९ में ऊपी अनिरुद्ध की कथा भामक पव उत्कृष्ट अन्ध रचा। हनुमान विदाभली अपि का दूसरा प्रन्ग हैं। आपकी रत्नना तेजपूर्ण और सगल है. जिसमें माधुरी इस फी विशेषता है। आपकी नग्यमा साधारण भयो में की जाती है। . गर्ग नायक गने बदन गरि सुत घिन घिनासन । एकदन्त गुमषन्त अन्त नई लाहुत सनातुन । कर त्रिसूल सुप्त मूल मूल दारिउ बिभज्ञन । लपटे मंग भुजंग सदा वैपुर अनुरंजन ॥ (७२७) व (२८) स्वामी ललितकिदारी च छाँलत- हिनी नामक दो महाशय गुराशिय धै। ये संवत् १८०० के ढा भग डुपः । ये लेाग निम्बार्क सम्प्रदाय में स्वामी हरिदास की शाम्रा के वेष्यब थे । इस शाम्मा के अनुयायी टन चाले कलाते ४ घार खच भी कहलाते हैं। इन दोन माइया ने भी स्वामी मराज जू की अवनिका नामक एक ४० पृष्ठी का अभापा मैं गध- अन्य रचा, ना हमने छत्रपुर में चैन्ना है। इनका समय जान से मिला है। ये साधारण थेगा के लेखक थे। दादुरा यस्तु के दृष्टान्त मलेय गिरि की समस्त बन याशी पपन सौं | १'चन्दन में जय | चाके फछ् इच्या नाद । वांस से अर' सुगन्ध न यि । सत्संग कुपात्र की असर न करे।