पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३१८

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५३१ ठाकुर ] सतरालंत प्रकरण । दीजिये ताहि देस्राय दया कर लेि दूरि ते देखन चै ।। धा निरमोहन रूप कि रास न ऊपर के मम आमत है है। चारद्धि चार विलैकि घरी घरी सुरति । पहिचाभर्ति हैं है॥ ठाकुर या मन की परतत है। ज्ञा १ सनेह न मानत है हैं । घव में नित मेरे लिये इतने धर विशेडू जानते हैं है ॥ अम का समुझावती के समुझे मदनामी के बीज त बाचुकी है। शव ता इतनी न विचार किया। अब जाल परे की फा चुकी हैं। कवि ठाकुर या इस राति रंगी परतोति पतिव्रत खो चुकी है। गरी नेकी घदी है। यदी हुती भाल में होनी हुती सुती हो चुकी हैं। झये की फ ने कहा कहिये मग जैायत जावत यं गया । ऐन तारत घार न ाई कर सन तैय जावन में गधे री॥