पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिव ] उत्तर प्रफर । ७३३ घे भए पच पचन लागे डाले | मानी चलत विदेसिन बिदेस को मनै फर' ॥ १॥ गैरी की धारी शिच कवि मेहंदी के पिन्दु | इन्दती का गन जाके आगे की फीके हैं। अँगुठा अनूप छाप माना सति आये आप। कर केज के मिलाप पात तजि ही हैं। प्रागै और अगुरी अँगूठी बोलागनि युत वैठो मना साय भरी चैघा अली के हैं। दचि कै छला से कामलाई से। ललाई रि जीत चुनी के ग छर छिनो की है ॥ ॥ दीत लंक दुनै कुनै जात नै उन भैर की भीर सतावै । । भारी ध्यान दुरों में ज्ञान तह मुन्न चंद तुरत व्रताचें ॥ चार महीनो सेलिए क्यों शिव हैं सजनी एठि ६ दियावै । देसि हमारे अंगन की सखि हौस हिंप की न पूजन पावै ॥३॥ | (०३५) शिव कवि द्वितीय ।। ये ग्रसनी-निवासी बन्दीज़न मैं । इनका कोई अंध वैलने में नही आयो, कैयक फुट छंद मॅश इत्यादि देने गये हैं। साधारण श्री में गिने जा सकते हैं। (७३६) गुमान मिश्र। न्ने पिडानी के मद्दमर्द मदाग्रज अवर अली खां आय में संवत् १८०१ में धोडपत नैषध आय का उल्था