पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३२८

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सरयूराम ] उरालंकृत प्रक्रम् ।। रामयि, सीता-स्याग, लवकुश जन्म, रामाश्वमेध में लचकुश का शत्रुवा, लस और भरत से युद्ध, तथा राम के माहित होने पर चामरफि र ह िदल स्वतन गैर सीताराम मिलाप भी कहे गये ६। ), मयूरध्वज ( इसमें इसके पुष ताम्रध्वज को घार गुद्ध वयात हे । ), परिवाम, चन्द्रहास और समुद्रस्य मुनि की कथायै अच्छी रीति से घर्शित { चैार अन्तिम कथा और फिर सधर्म लाम-हर्षण युद्ध कहे गये हैं। अन्त में युद्ध का संक्षिप्त इतिहास फार कचि में प्रल्ल म की स्यपुरयात्रा चर्शित की है। छत्तीसवें अध्याय में देश मायाँ फा कपडा, कृष्प वारिकागमन, सब जामे का अपने अपने नगर जाना ओर कधी माहात्म्य वर्णित है। इन सब विपर्यो। के चिर दान इस ग्रन्ग में हैं। ये महाशय महमा तुलसीदास की सति पर चर्चे हैं। इनकी भाषा भी वैसवारी हे । इन्दुनि विपत्या देहा चौपाइयो में चना की है, परन्तु अन्य छन्दो फी मात्रा इनकी कप्ता में बहुत है। उपमा, झपके आई इन्होंने अच्छे कई ६ घार सय विपर्यों की सफलता से लिया है। हम इनकी कथा- मासगिक क्षत्रियों की छु णी में रपते हैं। गुरुपद ज्ञ सम नहिं काटु लाहा । चिन्तामनि पाइय चिन चाहा ६ कुखपद पका पादम रेनू । कहा कलए तेस का तुर् धेनू में गुपदरा प्रिप पावन पाये । अाम सुगम सत्र घिनई उपाये ।। गुरुपद रज अन हरि हुरधामा । त्रिभुवन विभव दिस्य विरामा । गुरुपद रज पञ्जन दृग दीन्हें। परत सुतत्व चराचर चीन्हें । चषलगि जगजड जव भुलाना । घरम तय ग्रेस जिय नहिं जाना । श्रीगु वरन सरन सत्र पाई । य न फड करनौय जपाई है।