पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३२९

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मियन्यांनाङ्ग। [ सं १८०१ गु६ पंकज पाउँ पसाऊ । धपत मुधा मय वर्ष राऊ। लुमिरत होत हृदय अपनाना। मिटुन भाई मय मन मल नामा | व्यापक प्रम परेचर अन्तर) ध्यायपरमहंस सिर ऊपर }} (७०) शम्भुनाथ मिश्र (सं. १८०६ वाले) । परी-प्रचारिणी सभा के जिसे जान पड़ा कि इस नाम के कवि हुए हैं, जिनमें से सीन मद्दय मि भी थे। इनमें से यफ संवत् १८०६, दूसरे १८६७, पर सीसरे १९०१ में थे। संवत् १८८६ पाते शम्भुनाथ ने रख दलील, सप्तरंगिनी, और अलंकार दीपक नामक तीन अन्य घनायै । शेष छैन। कपियों को भी नाम यो शान एई ६ । संवद् १८१६ घाटे शनाय असेयर ज़ि फतेहपुर के राजा भगवन्तराय वाच के यहां रातै मैं । इनके अलं- कार दीपक में देाही अधिक हैं और शेष छन्द कम । इस प्रन्ध में ची कृप का यश-मान वह ६ बार वह ऑइया भी है। इसमें कधि भै गय में को भी लिया दी है। इसका प्रकार पुनथि के निक मान का प्रायः प्राधा है। शैप देर शशां के विषय में हमें विशैष दाङ क्षति नहीं हुग्न ६ ।निकी कांपेक्षा अत्यन्त मधुर, सानुप्रास तथा सरस है । हमें इन्हें पाकर की श्रेणी में रहेंगे । आज चतुरंग महाराज सैन साजत ही धीसा की पुकार घूर परी मुंद मादी के । भय के अज़ीरभ और उजीर भये सुल उठी उर में अमर ज्ञाही ताही के ।।