पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३५८

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दन ] उड्कृप्त प्रकाए । सँचत् १८६७ के कुछ पीछे यद् झन्थ चना और इसी कारण प्रारम्भ से ही इसमें विली र दक्षिी दलों की दुर्गति का वर्णन र अध्याय में किया गया। इसमें लिखा है कि सूरजमल ने प्रथन मेवाड़ में लिया और फिर मालवा में झाड़ौगढ़ जीत | संवत् १८०५ में बादशाह अहमदशाह के सैनिक अलवङ्ग । फअली पर धावा किया । सुरजमल नैफतेह अली की सहायता कर असदाफाससै संहार किया । इस अध्याय में घोड़े की शांति, सुरजम नै फर्जद अली के वकील की बात-चीत और असद की व्याग्न्यान परम प्रशंस- मीय है। रान जी दूर अध्याय के लिए नई चना लिखते हैं। संवत् १८०४ में सुरजमल ने जयपुर के महाराज्ञा ईथरी- सिंह की सहायता करके मरह के पराजित किया । संवत् | १८०५ में बसशी संलचितख वादशाह की तरफ़ से सूरजमल से लड़ कर पराजित हुआ । इस गुद का एक छन्द नो लिस्रते हैं:- मतम अप मुलतान दळ आए सीता समर भजाए उन्हें अई है अचक सा। छ खा रसना कराल कराल ते घ्याल भाल काटि ६ करन लागी तफसी ti छन सुजान मरीन इरिनायन। देष रिस जंगीत तैा चकमी । Fत हीन अमीरन के कसा मैं बकसी के निय में परी ६ घकपक सी ॥