पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३६१

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५३॥ मिक्षयधुपिद। [ १० १८}} रघ । रज्ञा : धर्म महुना अशा है। घर हिन्दू का गज़ा है माया छीर दुकानों का ॥ पूर्वी यादी का पैपट एक पद नीचे लिया जाता है:-- असकस फीन्द म्यार दिही फा नवरा चार चन्दन न सार भनसुर ज६ ल्याप्त है। घंन में जयपुर के महाराज्ञी माधघसिंह ने ग्राफर संधि कराई। फिर इस सथत् में पापा र मन्दीरराव ने मुरमठ से दे। कद रुपये पा पर मांगा पार न मिलने से पढ़ाई करने की धमकी दी। इन्होने पर देने से इनकार किया और युद्ध के चाते तैयारी की । इस बार की तैयारी का वन थान ी गभीर किया गया है। महाराष्ट्र दत्त के प्राक्षाने पर श्रीकृष्णाचन्द्र और कायम पर युद्ध पनि हे के पीछे वा हाई मा धन हुए द ग्य समाप्त हो गया है। इसी कारण मी विचार है कि यह झन्थ अपूर्ण रह गया है। यद् अध्याय भी अहुत प्रशंसनीय है, परन्तु थानाभाव के कारण हम इस अध्याय के केवल तीन छन्, जदुत करते हैं। उतते व भद्दार जयपुर से कुचहि किये । जैसे इलभ अपार उठे प्रज्ञा संहार्दिा ॥ हारे देवि हाड़ा मनमरे मजे इंस। झुरम पसारे पाँय सुनत नगारे के। ते पुर झारे फैते नृपति सँहारे ते ३रि दल भारे मज़ भूमि ६ *.रे ६ ६