पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३७७

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मिश्वगुथिनंद । [सं० १८३ (८७१) वैरींसाल। साल में संच १८२५ में भाराभरा बनाया। इन्द ने अपने विषय में यह वः मीन धारण या चित्र पर्ने अन्ध में साफ़ साफ़ अपना नाम तक नहीं दिया। एक स्थान पर चढ़े पच पेंच से आपने अपना नाम दिखा दिया, परन्तु अपने विषय में और कुछ नहीं लिया। चिसिंहलरीज में इन का नाम नहीं है। जांच से जान पड़ा कि ये महानाय असनी-निजाती मह्मभट्ट थे । इनकी परी इयैली अद्यावधि भई असनी में विद्यमान है। इन पदाधरी में गर्छ औ अस तक है जा कविता की परते हैं। इनका एक मात्र ग्रन्थ भापामरग्य पंडित युगलकिशोर के पुस्तकालय में इस्तलिखित वर्तमान है। इसमें ४५ छन्द हैं, जिनमें से प्रति सेकड़े मायः १५ हे हैं। इन्होंने घनादारी छन्द दी धी पक लिखे हैं। इस ग्रन्थ की श्रीद्धता से जान पड़ता है कि वैरीलाल जा ने पवारा वर्ष की अवा में इसे संपूर्ण किया है । इस हिसाब से न, फा जग संवत् १७६ को समझ पड़ता है। भामरसे अलरसम्मन्धी रीति-न्य है। इसके देखने से जान पड़ना है कि वैसील गुफाचे थे। इस प्रन्थ के पढ़ने से पक अनभिज्ञ भी अलंकारों को समझ सकता है । यद कुलग- नन्द के मत पर बनाया गया है। इस कॉप के वगैरे दाई बिहारी की रचना से मिल जाते हैं। यद्द झाब वैज्ञा दी प्रशंसनीय है और अलंकारे का आचार्य समझा जाता है । वैरीलाल के हुए । पदुमाकर की कक्षा में रखते हैं।