पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३८३

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५६३ मिश्नपषिद् ! [ सं १८२६, हुए हैं। पहले नाथ का यह एक कवित्त इमार देने में आया है। जिसमें भगवन्तराग की प्रशंसा की गई है पर उसमें शचीज़ का घार घेारंगजेथ का समान वानी दिया है, जो शुद्ध है, क्योंकि वे ते १८१७ संचव के असे पाप्त हुए हैं और पारंगजेब की मैति १७७ में हुई। अतः जनि पडता हैं कि यह छन्द किसी का मनगढ़त ६ अर' शायद जावी राज के आश्रय में कई नाध कवि न ६। बनारस घाले नाप फयि के १०-१३म्द मने देखे हैं। इनकी कविता साधारणतया अच्छा है और अधिकांश ६ ऋगार रस ही की है। केाई निरोप नूतन भाइ इनमें दमनै न पाप, पर सुनकी कमानत पर है । हम इन्हें साधारण थे शो में बनते हैं। सेहत १ लुभाय के भूपन भर $ मा टस लेट छु । चन देाल अमाल विकत सय तह पुर की छवि नाप भए छन जु लास भामि भाद्ध कि यमन धूड़ी । चाप से चाय सुधारस लेम वि विधु में मनै इन्द्र वधूटी ॥ शायद इन्द नाथ ने भागवतपच्चीस रचा। सम्भब है कि माकचन्द के यद् चाडै नथ यही हुँ । | (८७) हरिनाथ ब्राह्मण (गाय)। ये महाशय गुजराती साढ़ण काशी-निवासी थे। इन्दने संपन् १८२६ में अलंकार इपंग नामक अलफार या अथ घनाया। इसमें पहले ८६ देई। मैं क्षण, तत्पश्चात् ४० इन्दी द्वारा उनके उदा- इछ, फिर १७ देई द्वारा अनुप पन किया गया है। इन्हें नै एक एक छंद में फई कई उदाहरण रफ्षे हैं । इनका दूसरा